नवम्बर 1971 मे अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के साथ वाईट हाऊस में भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की बैठक हो रही थी। साथ में अमरीकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट (विदेश मंत्री) हेनरी कीसिंजर भी बैठे थे।
उस वर्ष मार्च के महिने में जब से पाकिस्तान ने अपने पूर्वी हिस्से में मिलिट्री दमन और नरसंहार का चक्र चलाना शुरू किया था, भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों में तनाव दिन ब दिन बढ़ते जा रहे थे।
नवम्बर आते तक दोनों देशों के बीच युद्ध की संभावना भी उसी अनुपात में बढ़ चुकी थी। पूर्वी पाकिस्तान (बाद में बांग्लादेश) से शरणार्थियों का भारत आना लगातार जारी था और संख्या एक करोड़ तक पहुंच रही थी।
पश्चिम पाकिस्तान के हाथों उसके पूर्वी हिस्से में हो रही अमानवीय ज्यादतियों की ओर, तथा भारत में इतनी बड़ी आबादी के आ जाने की संभावित प्रतिक्रिया की ओर दुनिया के देशों का ध्यानाकर्षण करने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बड़े स्तर पर प्रयास किये थे।
बड़ी संख्या में अनुभवी भारतीय राजनयिकों के अलावा अनेक नेताओं को विभिन्न देशों की राजधानियों में भेजकर दुनिया को वस्तुस्थिति से परिचित कराने तथा यह सुनिश्चित करने का जिम्मा दिया गया था कि युद्ध की स्थिति में शुरुआत करने का आरोप भारत पर न लगाया जाये।
मार्च के बाद से भारत पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को प्रशिक्षण देकर मुक्तिबाहिनी नाम की गोरिल्ला सेना तैयार कर रहा था। मुक्तिबाहिनी ने सैबोटाज के ज़रिये पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना को चुनौती देना शुरू कर दिया था।
लेकिन न केवल इन गतिविधियों पर पर्दादारी ज़रूरी थी बल्कि भारत के लिए यह भी ज़रूरी था कि युद्ध की स्थिति में “विक्टिम कार्ड” खेलने की तैयारी भी दुरुस्त रहे।
उन दिनों भारत में राजनैतिक मतभेदों के बावज़ूद सामाजिक एकता बरकरार थी। इंदिरा जी ने सरकार के सदस्यों को ही नही बल्कि जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं को भी अपने प्रतिनिधि के रूप में अन्य देशों की राजधानियों में भेजा था।
युद्ध की अपरिहार्यता समीप आने पर नवम्बर में इंदिरा जी स्वयं कुछ प्रमुख देशों की यात्रा पर गयी थीं। निक्सन के साथ हो रही भेंट उसी यात्रा का परिणाम थी।
नवम्बर की इस भेंट में निक्सन ने तल्खी के साथ कहा : ” यदि भारत ने पाकिस्तान के मामलों में नाक घुसायी (“इफ इंडिया पोक्स इट्स नोज़ इन पाकिस्तान”) तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा और भारत को सबक सिखाया जायेगा।”
इंदिरा जी ने शांति के साथ गरिमापूर्ण अंदाज़ में उत्तर दिया : ” भारत अमेरिका को मित्र के रूप में देखता है, “बाॅस” के रूप में नहीं। भारत अपनी नियति स्वयं लिखने में सक्षम है। हम जानते हैं हर स्थिति से कैसे निपटना है और हम इसमें सक्षम हैं।” और यह कहकर वे उठ गयीं।
ये इंदिरा गांधी के अंग्रेज़ी में कहे शब्द थे जो उन्होने वाईट हाऊस में उस दिन अमरीकी राष्ट्रपति की “आंखों में आंखें डालकर” कहे थे। इस वार्तालाप और इंदिरा जी के हावभाव का विवरण बाहर आया जब आगे चलकर हेनरी कीसिंजर ने “वाईट हाऊस इयर्स” के नाम से अपनी आत्मकथा लिखी।
उस दिन के घोषित कार्यक्रम के अनुसार बैठक के बाद भारतीय प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति को संयुक्त रूप से मीडिया को संबोधित करना था।
किन्तु बैठक से बाहर आते ही इंदिरा जी ने यह कार्यक्रम निरस्त घोषित कर दिया और सीधे अपनी कार की ओर बढ़ गयीं। उनकी अगवानी की ड्यूटी कर रहे कीसिंजर ने कार का दरवाजा बंद करते समय पूछा : “मैडम प्राईम मिनिस्टर, क्या आपको नहीं लगता राष्ट्रपति के प्रति आप कुछ और धैर्य का प्रदर्शन कर सकती थीं?”
इंदिरा जी का जवाब था : “आपके बहुमूल्य सुझाव के लिए धन्यवाद मिस्टर सेक्रेटरी। भारत विकासशील देश अवश्य है किन्तु हमारी रीढ़ की हड्डी सीधी और मजबूत है।
अत्याचार का सामना करने के लिए हमारे पास पर्याप्त इच्छाशक्ति और संसाधन हैं। हम साबित कर दिखाएंगे कि वे दिन चले गये जब कोई शक्ति हज़ारों मील दूर बैठकर किसी देश पर शासन कर सकती या उसके शासन को प्रभावित कर सकती थी।”
उसके बाद जैसे ही उनका एयर-इंडिया विमान दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर उतरा, इंदिरा जी ने विपक्ष के नेता अटल बिहारी बाजपेयी के लिए अपने आवास पर बुलावा भेजा।
एक घंटे तक बंद दरवाजे के पीछे चली मीटिंग के बाद अटल जी फुर्ती से बाहर निकलते दिखे। कुछ ही देर में यह जानकारी बाहर आ गयी कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय पक्ष रखने की जिम्मेदारी अटल जी को दी गयी थी।
उस समय बीबीसी के प्रतिनिधि डोनाल्ड पाॅल ने अटल जी से पूछा था : इंदिरा जी आपको अपना घोर आलोचक मानती हैं। इस के बावज़ूद इस सरकार के पक्ष में आप संयुक्त राष्ट्र में अपनी आवाज़ बुलंद कर पाएंगे?
अटल बिहारी जी का उत्तर था : “बगीचे की रौनक गुलाब से भी होती है, लिलि और दूसरे फूलों से भी। हर फूल को यह गुमान होता है रौनक का कारण वही एक है।
किन्तु जब बगीचे पर संकट आता है तो सारे छोटे बड़े माली मिलकर पूरे बगीचे की रक्षा करते हैं। सारे फूल इस बगीचा के हिस्सा हैं। सारे नेता माली हैं। मैं इसी बगीचे के पक्ष में बोलने जा रहा हूं और यही भारत की डेमोक्रेसी की खूबसूरती है।”
इंदिरा गांधी जी के इस तरह नाटकीय ढ॔ग से यात्रा समाप्त कर लौटने के बाद अमेरिका ने बड़े तामझाम के साथ अपने दो सौ सत्तर पैटन टैंक पाकिस्तान भेजे।
इससे पहले दुनियाभर के मीडिया को बुला कर इस नामी टैंक की आधुनिकतम टेक्नोलॉजी और खूबियो का प्रचार किया गया। मकसद था दूसरे देशों को संदेश देना कि युद्ध की स्थिति में वे भारत की मदद के लिए सामने न आएं।
अमेरिका यहीं नहीं रुका। उस समय तक भारत की पेट्रोल-डीज़ल (तेल) की अधिकांश आपूर्ति अमेरिका की बर्मा-शेल कम्पनी करती थी। अमेरिका ने उसे बंद करवा दिया। इंदिरा जी की कुशल डिप्लोमेसी का परिणाम यह हुआ कि भारत को तत्काल यूक्रेन से तेल प्राप्त करने में सफलता मिल गयी।
(भारतीय तेल कम्पनियों के पनपने की कहानी यहां शुरू हुई थी। युद्ध के बाद इंदिरा गांधी ने विदेशी तेल कम्पनियों का अधिग्रहण/राष्ट्रीयकरण कर दिया। ‘बर्मा-शेल’ बन गयी भारत पेट्रोलियम, राॅकफेलर की कम्पनी ‘एस्सो’ और ‘कैलटेक्स’ मिलकर बन गयीं हिन्दुस्तान पेट्रोलियम; ‘आई.बी.पी.’ (इन्डो-ब्रिटिश पेट्रोलियम) को इंडियन ऑयल में शामिल कर दिया, आदि)
दिसम्बर 71 में चले तेरह दिनों के युद्ध में भारत को सिर्फ एक दिन लगा था 270 में से अधिकांश पैटन टैंकों को ध्वस्त करने में। एक दिन में सारा अमरीकी गुरूर थार रेगिस्तान की धूल में मिल गया था। युद्ध के बाद इन टैंकों को देश के भीतरी शहरों पर लाकर चौराहों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर स्थापित किया गया।
युद्ध शुरु होते ही भारतीय नौ-सेना ने अरब सागर पर दबदबा कायम कर पश्चिम पाकिस्तान के लिए पूर्वी हिस्से तक पहुंचने के मार्ग बंद कर दिये थे। इसने पूर्वी पाकिस्तान में फंसे एक लाख से अधिक सैनिकों और सिविल अधिकारियों को हतोत्साहित कर दिया था।
इस मनोबल को बनाये रखने और भारत पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका ने अपने नौ-सेना बेड़े की सातवीं फ्लीट को बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया। यह कोई सामान्य बेड़ा नहीं था।
न्यूक्लियर शक्ति से सम्पन्न दुनिया के पहले विमान वाहक जहाज यू.एस.एस. ऐन्टरप्राईज़ के नेतृत्व में यह बेड़ा दरअसल पानी पर तैरती अमेरिकी सैन्य शक्ति का प्रभावशाली हिस्सा था।
दुनिया पर यू.एस.एस. ऐन्टरप्राईज़ का ख़ौफ़ सबसे पहले 1962 में कायम हुआ था जब क्यूबा मिसाईल संकट के दौरान अमेरिका ने इसे आगे किया था।
जब जाॅन केनेडी के अमेरिका और निकिता ख्रुश्चेव के सोवियत संघ, दोनों अपने अपने स्टैंड से पीछे हटने के लिए राजी नहीं हो रहे थे, तब दुनिया का पहला न्यूक्लियर युद्ध अवश्यंभावी मान लिया गया था।
(यही दुनिया का अंतिम युद्ध भी होता।) किन्तु तभी अमेरिकी यू.एस.एस. ऐन्टरप्राईज़ क्यूबा के पास पंहुचा और सोवियत संघ ने पलक झपका दी। युद्ध टल गया।
दूसरा मौका आया 1968 में। उत्तर कोरिया ने एक अमेरिकी युद्धपोत यू.एस.एस. पेब्लो को जासूसी के आरोप में अपने अधिकार में ले लिया था।
वापस लेने में जब अमेरिका की कूटनीति सफल होती नहीं दिखी तो उसने जापान के ससेबो बंदरगाह पर खड़े यू.एस.एस. ऐन्टरप्राईज़ को उत्तरी कोरिया की ओर रवाना कर दिया। कोरिया ने अमेरिकी युद्धपोत वापस कर दिया।
इस तरह कम से कम दो उदाहरण थे जब ऐन्टरप्राईज़ से बिना किसी विमान के उड़े और बिना किसी तोप के चले अमेरिका को सामने वाले को धमकाने में सफलता मिली थी। किन्तु इस बार सामने इंदिरा गांधी थीं और पहली बार यू.एस.एस. ऐन्टरप्राईज़ की हेकड़ी को चैलेंज मिला था।
1971 के युद्ध का यह वह काल था जब भारत का एकमात्र विमान वाहक युद्धपोत विक्रांत बंगाल की खाड़ी में था। इंदिरा जी की “डिप्लोमेसी” फिर काम आयी।
उन्होने सोवियत रूस को राजी कर उनकी एक न्यूक्लियर पनडुब्बी को ऐन्टरप्राईज़ के पीछे लगवा दिया। ऐन्टरप्राईज़ के सामने भारतीय विक्रांत था और पीछे रूसी पनडुब्बी।
और थीं ऐन्टरप्राईज़ की ताकत से बेख़ौफ़ इंदिरा गांधी। ऐन्टरप्राईज़ ने अपनी दिशा बदल कर दक्षिणी हिन्द महासागर में जाने का निर्णय ले लिया।
इसके बाद का इतिहास बहुचर्चित रहा है। भारतीय फ़ौज ढाका पहुंची, नब्बे हज़ार से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय जनरलों के सामने आत्मसमर्पण किया।
मुजीब उर रहमान को पाकिस्तानी जेल से रिहा करवा कर दिल्ली और फिर ढाका लाया गया। भारत ने बांग्लादेश को मान्यता दी। संसद में अटल बिहारी जी ने इंदिरा जी को “मां दुर्गा” कह कर संबोधित किया।
भारत उसके बाद से गुटनिरपेक्ष आंदोलन के रूप में विकासशील देशों की “तीसरी दुनिया” के अघोषित और निर्विवाद नेता के रूप में स्थापित हुआ।
इन सब घटनाओं को इस माह पचास साल हो गये। लेकिन अमेरिका कभी नहीं भूला कि वह भारत का सिर्फ एक मित्र हो सकता है, उससे अधिक कुछ नहीं।