किसान को सशक्त बनाने पर दिया जाए ध्यान: गुरविंदर सिंह घुम्मन

किसान | Khabrain Hindustan | Kissan | गुरविंदर सिंह घुम्मन

एक बार फि पंजाब के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने के लिये आंदोलनरत हैं। संकट का पहला समाधान यह है कि सरकार समर्थन मूल्य जारी करे और खुद ही सारी फसलें खरीदे। दूसरा विकल्प है कि सरकार समर्थन मूल्य निर्धारित करे और खुले बाजार में उस मूल्य पर अनाज की खरीद सुनिश्चित हो। सरकार हरित क्रांति के बाद कुछ राज्यों में गेंहूए धान व कुछ अन्य फसलें एमएसपी पर आज भी खरीद रही है।

कुछ किसान नेता मानते हैं कि सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलें खरीदने से बचना चाहती हैं और किसान को बाजार के हवाले छोडऩा चाहती है। एक तर्क है कि सरकार एमएसपी पर इसलिये खरीद कर रही है कि उसे फसलें बाजार मूल्य से कम या बाजार मूल्य पर मिल रही हैं। जिसका संकेत यह है कि यदि सारी फसलों को एमएसपी पर खरीदने का फार्मूला आर्थिक रूप से तंत्र के लिये लाभकारी होता तो 70 साल पहले सरकार सभी फसलें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद रही होती।

दूसरा विकल्प यह है कि बाजार समर्थन मूल्य पर फसलें खरीदे। बाजार भी तब तक ही खरीदेगा जब तक उसे लाभकारी लगेगा। जिस दिन उसे समर्थन मूल्य ज्यादा लगेगा, वह नहीं खरीदेगा। किसी भी खरीददार को किसी उपज को खरीदने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। ऐसे में यदि बाजार फसलें नहीं खरीदेगा तो पेनल्टी किस पर लगाई जाएगी।


किसान एमएसपी कानून की लंबे समय से मांग कर रहे है। सरकार एमएसपी लागू भी कर देती है तो खुली मार्केट को किसी तय कीमत के दायरे में नहीं बांध सकते। मार्केट निर्धारित करेगी कि फसल का मार्केट रेट क्या होना चाहिए। भारत एक अपूर्ण बाजार है, इसलिए संपूर्ण एमएसपी के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। एमएसपी कानून का दूसरा विकल्प ये है कि सरकार एमएसपी भी तय करे और सरकार खुद ही सभी फसलों की खरीद करे। अगर ये फार्मूला इतना आसान होता तो भारत की बात छोडि़एए पूरा विश्व भी इसे लागू कर देता।

एमएसपी कानून को लेकर सरकार का असमंजस इसे लागू न करने से ये समझ में आ रहा है कि ये सरकार के बस की बात नहीं है और ये फार्मूला भी देश हित में नहीं है। एक दशक तो इसी कशमकश में हो चुका है और आगे भी यह इसी प्रकार जारी रह सकता है। सरकार को भी चाहिए कि वो किसान को इसके बारे में स्पष्ट तौर पर बताए कि इसे लागू नहीं किया जा सकता
इसके बावजूद यदि किसान संगठन समझते हैं कि ये सारी फसलें न्यूनतम मूल्य पर सरकारें खरीदेंगी तो हमें आगे बढऩा चाहिए।

नहीं तो एमएसपी को दरकिनार करके कृषि उत्पादों को बाजार के आधार पर बिकने दिया जाए। जरूरत इस बात की भी कि बाजार को सुधारने की कोशिश प्राथमिकता के आधार पर हो। किसानों को भी समझना होगा कि उनकी मेहनत के बाद जो कुछ भी मिलना है वह बाजार ही देगा, सरकार से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सरकार ज्यादा दे भी नहीं सकती। जो भी किसान के साधन व खेती है उसमें जीवनयापन बाजार के साथ तालमेल बनाकर ही किया जा सकता है।

मेरा किसान भाइयों और सरकारों को सुझाव है कि आज की परिस्थतियों को देखते हुए दो साल के लिये कुछ कदम उठाये। पहला यह कि सरकार एमएसपी कानून बनाए और प्रायोगिक तौर पर देखे कि वह बाजार को एमएसपी रेट पर फसलें खरीदने के लिए बाध्य कर सकती है। दूसरी बात यह है कि सरकार अधिकतम फसलें एमएसपी पर खरीदे। यह आकलन करे कि वह सारी फसलें खरीद सकती है या नहीं।


दरअसल, किसान कई संकटों से जूझ रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसकी जमीन का बंटवारा जारी है। जिससे खेतों की जोत छोटी होती जा रही है, जिससे लाभकारी खेती करना मुश्किल हो रहा है। जिसके चलते ही वह एमएसपी को एक सहारे के रूप में देखता है। उदाहरण स्वरूप सन् लगभग 1980 में मेरे एक सहपाठी के पिता के दो भाई थे, जिनके पास 30 एकड़ काफी अच्छी उपजाऊ जमीन थी और एक संपन्न किसान परिवार था।

कुछ समय पहले मुझे पता लगा कि मेरे सहपाठी के दो भाई और दो बहनें और थीं। उसके पिता द्वारा घर के खर्चे पूरे न होने व खेती के बंटवारे के कारण उन्होंने अपनी सारी जमीन बेच दी। आज वो एक वारिस होता था तो आज सारी जमीन बिकने से बच जाती। मेरा सुझाव है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक अभियान चले एक किसान-एक वारिस।


किसानों की मुश्किल की एक वजह यह भी है कि किसानों पर भी नई उपभोक्तावादी संस्कृति का असर पड़ा है। ऋण लो और घी पियो। हम देखें तो सन् 2000 तक सरकारी बैंकों से किसानों को छोटी रकम लगभग 60 हजार उपलब्ध होती थी। किसानों को अपने घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए ऋण मकान, बच्चों की शादी, बीमारी इत्यादि के लिए ही बड़ी रकम की आवश्यकता होती थी।

अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ज्यादातर किसान महाजनों/आढ़ती से कर्जा लेते थे। जिन किसानों की आमदनी खेती से या दूसरे विकल्प से कर्जा उतारने में पर्याप्त थी, उन्होंने अपने कर्ज उतार लिए। ज्यादातर किसान कर्जे के तौर पर बड़ी राशि लेते थे और खेती और दूसरे साधनों से आमदन कम थी। उनकी जमीनें बिकती भी देखी गई। वर्ष 2000 के दौरान देखा गया कि किसान 4-5 लाख रुपये का नया ट्रैक्टर बैंक से लोन लेकर एक लाख से कम कीमत पर मार्केट में बेच जाते थे और बैंक का कर्जा बाद में उतारते रहते थे।


मेरा उस वक्त किसानों को सुझाव था कि एक से दो लाख का घाटा खाने की बजाय अपनी जमीन में से छोटा हिस्सा (एक कनाल से लेकर एक एकड़) बेचकर अपनी जरूरतें पूरी कर लोए जिससे बाकी जमीन सुरक्षित बच जाएगी। अनेक किसानों ने मेरे सुझाव को माना और कुछ ने नहीं माना, उनकी जमीनों का बड़ा हिस्सा बाद में बिकता देखा गया। ऋण के मामले में आज भी किसानों की वही स्थिति व सोच है और वही जरूरत हैं। यह सोच कि कर्जा ले लो और बाद में उतरता रहेगा। आज किसान भाई सरकार से कर्जे माफी की डिमांड कर रहे हैं।

आज भले ही सरकार किसानों की मांग पर पूरा कर्जा माफ भी कर दे, लेकिन फिर ऋण लेने का ये चक्र फिर से उसी पटरी पर चल पड़ेगा। मेरा सुझाव ये है कि राष्ट्रीय स्तर पर किसानों को जरूरत के हिसाब से ऋण लेने हेतु जागरूक किया जाए। वे उतना ही ऋण लें जितना आसानी से उतारा जा सकें। जरूरत से अधिक ऋण लेने व उतारने के संसाधन न होने से जमीनें ही बिकेंगी। आगे किसान भाइयों की मर्जी है।


वैसे तो फिलहाल सरकार महंगाई नियंत्रण और छोटे किसानों को राहत देने के लिये एमएसपी को जारी रख रही है। मुख्यत: दो ही फसलों मसलन खरीफ व रबी की फसलों पर एमएसपी का निर्धारण किया जाता रहा है। सवाल यह भी है कि अन्य फसलों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में लाया जाना चाहिए या नहीं। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि लोकतांत्रिक दबाव न हों तो सरकारें एमएसपी की सुविधा से भी पल्ला झाड़ सकती हैं। पिछले वर्षों में किसान आंदोलन के दौरान भी ये आशंकाएं बलवती हुई थी।

यही वजह है कि किसान लगातार केंद्र सरकार पर एमएसपी को कानूनी रूप दिये जाने की मांग करते रहे हैं। जाहिर बात है कि छोटी जोत से जीवन यापन करने वाले किसानों को बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। आज भले ही छह फीसदी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिल रहा हो, लेकिन यदि यह सुरक्षा कवच न हो तो बाजार की स्थितियां कैसी होंगी। हालांकि, कई सरकारें एमएसपी का विकल्प तलाशती रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि एमएसपी खत्म होने पर छोटे किसानों के अस्तित्व को क्या बड़ा खतरा पैदा नहीं होगा।


ऐसे में सवाल यह है कि किसान की आय बढ़ाने वाली प्रमुख योजनाएं हकीकत क्यों नहीं बनती। मंथन इस बात पर भी हो कि साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किस हद तक हकीकत बना। दरअसल, मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए इसे वास्तविक आय का निर्धारण होना चाहिए। देश के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार 2018-19 में किसान परिवार की अनुमानित मासिक आय सिर्फ 10218 रुपये प्रति माह ही थी, वहीं दूसरी ओर पिछले कुछ वर्षों के दौरान खाद, कीटनाशक व डीजल समेत कृषि में सहायक अवयवों की लागत लगभग दोगुनी हो गई।

वक्त की जरूरत है कि सरकार को वर्तमान एमएसपी योजना को समृद्ध करके और प्रभावी बनाना होगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि एमएसपी प्रणाली के अंतर्गत सभी इस फसलों पर अधिक किसानों को एमएसपी का लाभ मिले। दरअसलए किसानों को इस वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग करनी पड़ रही है क्योंकि एमएसपी के प्रति सरकारों में जवाबदेही का अभाव है।

वर्तमान समय मे देश के सामने उपस्थित कृषि से जुड़ी चुनौतियों को हम भली-भांति समझते हैं। सीधी से बात है कि किसानों की आय बढऩी चाहिए। जो गरीबी मिटाने में भी सहायक होगी। दरअसल, किसानों-खेत मजदूरों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए मानवीय दृष्टिकोण के साथ कृषि संकट को देखा जाने की जरूरत है। हमारे नीति-नियंताओं को ध्यान में रखना चाहिए कि भारतीय समाज में खेती महज व्यवसाय या आर्थिक कारोबार नहीं है।

जब गांधी जी कहा करते थे कि इस देश की आत्मा गांवों में बसती है तो उसके गहरे निहितार्थ थे। दरअसल, भारत की बड़ी आबादी के लिए खेती जीवन जीने की एक सैकड़ों पीढिय़ों से चली आ रही रीत है। जिसका संबंध सिर्फ खेत व उपज मात्र से नहीं है। यह किसान के पुरखों की धरोहर भी है और उनके आने वाली पीढिय़ों का कल भी है।
गुरविंद्र सिंह घुम्मन-लेखक न्यायसंगत खेती अभियान से जुड़े हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *